तब तैं गोबिंद क्यौं न सँभारे ?
भूमि परे तैं सोचन लागे, महा कठिन दुख भारे।
अपनौ पिंड पोषिबैं कारन, कोटि सहज जिय मारे।
इन पापनि तैं क्यौं उबरौगे, दामनगीर, तुम्हारे।
आपु लोभ-लालच कैं कारन, पापनि तैं, नहिं हारे।
सूरदास जम कंठ गहे तें, निकसत प्रान दुखारे।।334।।