रे मन मूरख, जनम गँवायौ।
करि अभिमान बिषय-रस गीध्यौ स्याम-सरन नहिं आयौ।
यह संसार सुबा-सेमर ज्यौं, सुंदर देखि लुभायौ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उड़ि हाथ कछू नहि आयौ।
कहा होत अब के पछिताएँ पहलैं पाप कमायौ।
कहत सूर भगवंत-भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ।।335।।