जनम सिरानौ अटकैं-अटकैं -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग



जनम सिरानौ अटकैं-अटकैं।
राज-काज, सुत-बित की डोरी, बिनु विवेक फिरयौ भटकैं।
कठिन जो गाँठि परी माया की, तोरी जाति न झटकें।
ना हरि-भक्ति, न साधु-समागम, रह्यौ बीचहीं लटकैं।
ज्‍यौं बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कैं।
सूरदास सोभा क्‍यौं पावै, पिय बिहीन धनि मटकैं।।292।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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