जनम सिरानौ अटकैं-अटकैं।
राज-काज, सुत-बित की डोरी, बिनु विवेक फिरयौ भटकैं।
कठिन जो गाँठि परी माया की, तोरी जाति न झटकें।
ना हरि-भक्ति, न साधु-समागम, रह्यौ बीचहीं लटकैं।
ज्यौं बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कैं।
सूरदास सोभा क्यौं पावै, पिय बिहीन धनि मटकैं।।292।।