काया हरि कै काम न आई -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सोरठ



काया हरि कै काम न आई
भाव-भक्ति जहँ हरि-जस सुनियत, तहाँ जात अलसाई।
लोभतुर ह्वै काम मनोरथ, तहाँ सुनत उठि धाई।
चरन-कमल सुंदर जहँ हरि के, क्‍यौंहुँ, न जाति नवाई।
जब लगि स्‍याम-अंग नहिं परसत, अंधे ज्‍यौं भरमाई।
सूरदास भगवंत-भजन तजि, विषय परम विष खाई।।295।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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