काया हरि कै काम न आई
भाव-भक्ति जहँ हरि-जस सुनियत, तहाँ जात अलसाई।
लोभतुर ह्वै काम मनोरथ, तहाँ सुनत उठि धाई।
चरन-कमल सुंदर जहँ हरि के, क्यौंहुँ, न जाति नवाई।
जब लगि स्याम-अंग नहिं परसत, अंधे ज्यौं भरमाई।
सूरदास भगवंत-भजन तजि, विषय परम विष खाई।।295।।