कहत कान्ह नँद बाबा आवहु।
भोजन परसि धरे सब आगैं, प्रेम-सहित गिरिराज मनावहु।।
और नंद उपनंद बुलाए, क्ह्यौ सबनि सौं भोग लगावहु।
सुपने मैं देख्यौ इहिं मूरति, यहै रूप धरि ध्यान धियावहु।
इक मन, इक चित अरपित करिकै, प्रगट देव-दरसन तुम पावहु।
सूर स्याम कहि प्रकट सबनि सौं, अपनैं कर लै क्यौं न जिंवावहु।।835।।