उपना धीरज तज्यौ निरखि छवि।
कोटि मदन अपनौ बल हारयौ, कुंडल किरनि छप्यौ रवि।।
खंजन, कज, मधुप, बिधु, तडि, घन दीन रहत कहूँवै दवि।
हरिपटतर दै हमहि लजावत, सकुच नाहिं खोटे कवि।।
अरुन अधर, दसननि दुति निरखत, विद्रुम सिखर लजाने।
सूर स्याम आछौ बपु काछे, पटतर मेटि विराने।।1756।।