नटवरबेष काछे स्याम -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिहागरौ


नटवरबेष काछे स्याम।
पदकमल नख-इंदु-सोमा, ध्यान पूरनकाम।।
जानु जंघ सुघटनि करमा, नहीं रभातूल।
पीट पट काछनी मानहु, जलज केसर झूल।।
कनक छुद्रावली पंगति, नाभि कटि कै भीर।
मनहु हस-रसाल-पंगति, रहे है ह्रदतीर।।
झलक रोमावली सोभा, ग्रीव मोतिनि हार।
मनहु गंगाबीच जमुना, चली मिलि वय घार।।
बाहु दंड बिसाल तट दोउ, अंगचदन रैनु।
तीरतरु बनमाल की छवि, ब्रजजुवति सुखरढैनु।।
चिबुक पर अधरनि, दसनदुति बिंब बीजु लजाइ।
नासिका सुक, नैन खंजन, कहत कबि सरमाइ।।
स्रवन कुंडल कोटि-रबि-छबि, भृकुटि काम कोदंड।
‘सूर’ प्रभु हैं नीप कै तर, सीस धरे सिखंड।।1755।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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