आजु बिरहिनी बिरह तुम्हारै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग घनाश्री


आजु विरहिनी विरह तुम्हारै, कैसौ रटति रही।
चारि जाम निसि तुम्हरोइ सुमिरन, और न बात कही।।
वासर कथा कठिन करि करि मन, क्रमक्रम व्यथा सही।
संध्या ससि दव जानि चली उठि, रहति न अंक ग़ही।।
अति स्रम मलय कुंकुमा, सीचत, सरिता सेज बही।
ते क्यौ सीतल होहि ‘सूर’ अब, पिया वियोग दही।।4142।।

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