कान्ह तुम्हारी बिकल बिरहिनी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


कान्ह तुम्हारी बिकल बिरहिनी, बिलपति विरह बिगोयें।
अति आरति न सम्हारति तन मन, इकटक लौ मग जोयै।।
काजर मिलि लोचन बरषत अति, दुख मुख की छवि रोयै।
राहु केतु मानौ सुमीड़ि विधु, अंक छुड़ावत धोयै।।
अबला कहा जोग मत जानै, मनमथ व्यथा बिलोयै।
'सूरदास' क्यौ नीर चुवत है, नीरस बसन निचोयै।।4143।।

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