बिराजति राधा रूपनिधान।
सुंदरता की पुंज प्रगट ही, को पटतर तिय आन।।
सिंदुर सीस, माँग मुक्तावलि, कच कमनीय बिनान।
मनहुँ चंद्रमुख कोपि हन्यौ, रिपुराहु बिषम बलवान।।
तरल तिलक ताटक गड पर झलकत कल बिवि कान।
मानहुँ ससि सहाय करिबे कौ, रन बिरचे द्वै भान।।
दीरघ नैन नासिका बेसरि, अरुन अधर छविवान।
खंजन, सुक न बिंब समता कौ, लज्जित भए अजान।
को कहि सकै उरोजनि की छवि, कंचन मेरु लजान।
श्रीफल सकुचि रहे दुरि कानन, सिखर हियौ बिहरान।।
रोमावलि-त्रिवली-छवि छाजति, जनु कीन्ही बिधि ठान।
कृस कटि सबल दंड बधन मनु, यह दीन्हौ बधान।।
अंग अंग आभूषन की छबि, कापै होइ बखान।।
'सूरदास' प्रभु रसिक सिरोमनि, बिलसहु स्याम सुजान।।2446।।