सहज रूप की रासि राधिका -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


सहज रूप की रासि राधिका भूषन अधिक बिराजै।
मुख सौरभ समिलित सुधानिधि, कनकलता पर छाजै।।
बदनबिंदु धारि मिलि सोभित, धम्मिल नीर अगाध।
मनहुँ बाल-रवि-रस्मिनि-संकित, तिमिर कूट ह्वै आध।।
मानिक मध्य, पास चहुँ मोती पगति, झलक सिंदूर।
रेग्यौ जनु तमतट तारागन, ऊगत घेरयौ सूर।।
की मनमथ-रथ-चक्र, कि तरिवन, रवा रचित सहसाज।
स्रवनकूप की रहँटघंटिका, राजत सुभग समाज।।
नासा-नथ-मुक्ता, बिंबाधर प्रतिबिंबित असमूच।
बाँध्यौ कनकपास सुक सुंदर, करकबीज गहि चूँच।।
कहँ लगि कहौ भूषननि भूषित, अंग अंग के रूप।
'सूर' सकल सोभा श्रीपति कै, राजिव नैन अनूप।।2445।।

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