तुम तजि और कौन पै जाउँ ?
काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ।
ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दिऐं अघाउँ।
अंत काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनंत कहूँ नहिं दाउँ।
रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय-पद ठाउँ।
कामधेनु, चिंतामनि, दीन्हौं कल्पवृच्छ-तर छाउँ।
भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन मैं अधिक डराउँ।
कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ।।164।।
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