जौ हरि-व्रत निज उर न धरैगौ।
तौ को अस त्राता जु अपुन करि, कर कुठावँ पकरैगौ।
आन देव की भक्ति-भाइ करि कोटिक कसब करैगौ।
सब वे दिवस चारि मन-रंजन, अंत काम बिसरैगौ।
चौरासी लख जोनि जन्मि जग, जल-थल भ्रमत फिरैगौ।
सूर सुकृत सेवक सोइ साँचौ, जो स्यामहिं सुमिरैगौ।।75।।