को को न तरयौ हरि-नाम लिएँ।
सुवा पढ़ावत गनिका तारी, व्याध तरयौ सर-घात किऐं।
अंतर दाह जु मिटयौ व्यास कौ इक चित ह्वै भागवत किऐं।
प्रभु तैं जन, जन तैं प्रभु बरतत, जाकी जैसी प्रीति हिऐं।
जौ पै राम-भक्ति नहिं जानी, कह सुमेरु सम दान दिऐं।
सूरजदास विमुख जो हरि तै, कहा भयौ जुग कोटि जिऐं।।89।।