करति श्रृंगार वृषभानुवारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग गुंड मलार


करति श्रृंगार वृषभानुवारी।
रहे इकटक जाल रंध्र मग हेरि कै, स्याम मन भावती परम प्यारी।।
कबहुँ बेनी रचति फूल सौ मिलै कच, कबहुँ रचि माँग मोतिनि सँवारै।
कबहुँ राखति सीराफूल लटकाइ कै, कबहुँ तदन बिंदु भाल भारे।।
कबहुँ केसरि आड रचति दर्पन हेरि, कबहुँ भ्रुव निरखि रिस करि सकारै।
निरखि अपनौ रूप आपु ही बिबस भई, 'सूर' परछाँहि कौ नेन जोरै।।2190।।

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