अवगुन मोपै अजहूं न छूटत -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राम धनाश्री



मौसी पतित न और गुसाई।
अवगुन मोपै अजहूँ न छूटत, बहुत पच्‍यौ अब ताई।
जनम जनम तै हौं भ्रमि आयौ कपि गुंजा की नाई।
परसत सीत जात नहिं क्‍यौ हूँ, लै लै निकट बनाई।
मोह्यो जाइ कनक-कामिनी-रस, ममता मोह बढ़ाई।
जिह्वा-स्‍वाद मीन ज्‍यौ उरझयौ, सूझी नहीं फँदाई।
सोबत मुदित भयौ सपने मैं पाई निधि जो पराई।
जागि परै कछु हाथ न आयौ, यौं जग की प्रभुताई।
सेए नाहि चरन गिरिधर के, बहुत करी अन्‍याई।
सूर पतित कौ ठौर कहूँ नहिं, राखि लेहु सरनाई।।।147।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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