हरि, हौं सब पतितनि कौ नायक -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग




हरि, हौं सब पतितनि कौ नायक।
की करि सकै बरावरि मेरी, और नहीं कोउ लायक।
जो प्रभु अधामील कौं दीन्‍हौं सो पाटौ लिखि पाऊँ।
तो विस्‍वास होइ मन मेरै, औरौ पतित बुलाऊँ।
वचन बाहँ लै चलौ गाँठि दै, पाऊँ सुख अति भारी।
मह मारग चोगुनौ चलाऊँ, तो पूरौ व्‍यौपारी।
यह सुनि जहाँ तहाँ तै सिमिटै, आइ होइ इक ठौर।
अब कें तौ आपुन लै आयौ, बेर बहुर की और।
होड़ा होड़ी मनहिं भावते किए पाप भरि पेट।
ते सब पतित पाय-तर डारौं, यहै हमारी भेंट।
बहुत भरौसौ जानि तुम्‍हारो, अध कीन्‍हे भरि भाँड़ौ।
लीजै वेगि निवेरि तुरतहीं सूर पतित कौ टाँड़ौ।।।146।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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