हुरि जू, मोसौ पतित न आन।
मन-क्रम-बचन पाप जे कीन्हे, तिनकौ नाहि प्रमान।
चित्रगुप्त जम-द्वार लिखत हैं, मेरे पातक झारि।
तिनहूँ त्राहि करी सुनि औगुन, कागद दीन्हे डारि।
औ नि कौं जम कै अनुसासन, किंकर कोटिक धावैं।
सुनि मेरो अपराध-अधमई, कोऊ निकट न आवैं।
हौं ऐसो, तुम वैसे पावन, गावत हैं जे तारे।
अवगाहौं पूरन गुन स्वामी, सूर से अधम उधारे।।197।।
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