हरि सौं मीत न देख्यौ कोई।
बिपति-काल सुमिरत, तिहिं औसर आनि तिरीछौ होई।
ग्राह गहे गजपति मुकरायौ, हाथ चक्र लै धायौ।
तजि बैकुण्ठ, गरुड़ तजि, श्री तजि, निकट दास कै आयौ।
दुर्बासा कौ साप निवारयो, अंवरीष-पति राखी।
ब्रह्मलोक-परजंत फिरयौ तहँ देव-मुनी-जन साखी।
लाखागृह तै जरत पांडु-सुत बुधि-बल नाथ, उबारे।
सूरदास-प्रभु अपने जन के नाना त्रास निबारे।।10।।