हरि सौं मीत न देख्‍यौ कोई -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग धनाश्री


            
हरि सौं मीत न देख्‍यौ कोई।
बिपति-काल सुमिरत, तिहिं औसर आनि तिरीछौ होई।
ग्राह गहे गजपति मुकरायौ, हाथ चक्र लै धायौ।
तजि बैकुण्‍ठ, गरुड़ तजि, श्री तजि, निकट दास कै आयौ।
दुर्बासा कौ साप निवारयो, अंवरीष-पति राखी।
ब्रह्मलोक-परजंत फिरयौ तहँ देव-मुनी-जन साखी।
लाखागृह तै जरत पांडु-सुत बुधि-बल नाथ, उबारे।
सूरदास-प्रभु अपने जन के नाना त्रास निबारे।।10।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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