हरि ठाढे रथ चढे दुवारे -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग धनाश्री




हरि ठाढ़े रथ चढ़े दुवारे।
तुम दारुक, आगै ह्वै देखौ, भक्त भवन किधौं अनत सिधारे।
सुनि सूंदरि उठि उत्तर दीन्‍ह्यौ, कौरव-सुत कछु काज हँकारे।
तहँ आए जदुपति सुनियत हैं, कमल-नयन हरि हितू हमारे।
जिनकौं मिलन गए पति तेरे, सो ठाकुर ये विदित तुम्‍हारे।
सूर सुनत संभ्रम उठि दौरी, प्रेम-मगन, तन दसा बिसारे।।240।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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