हरि ठाढ़े रथ चढ़े दुवारे।
तुम दारुक, आगै ह्वै देखौ, भक्त भवन किधौं अनत सिधारे।
सुनि सूंदरि उठि उत्तर दीन्ह्यौ, कौरव-सुत कछु काज हँकारे।
तहँ आए जदुपति सुनियत हैं, कमल-नयन हरि हितू हमारे।
जिनकौं मिलन गए पति तेरे, सो ठाकुर ये विदित तुम्हारे।
सूर सुनत संभ्रम उठि दौरी, प्रेम-मगन, तन दसा बिसारे।।240।।