हरि ठाकुर लोगनि सौ ऊधौ, कहि काहे की प्रीति।
जौ कीजै तो ह्वैहै जलधर, रवि की ऐसी रीति।।
जैसै मीन कमल चातक कौ, ऐसै दिन गए बीति।
तरफत, जरत, पुकारत, निसिदिन नाहिन ह्याँ कछु नीति।।
मन हठि परयौ कबंध जुद्र ज्यौ, हारहुँ मानत जीति।
सकत न प्रेम समुद्र ‘सूर' प्रभु, वारू ही की भीति।।3838।।