को गोपाल कहाँ के बासी, कासौ है पहिचानि।
तुम धौ जोग कौन के सिखए, इहाँ कहत हौ आनि।।
अपनी चोप मधुप उड़ि बैठत, भोर भलौ रस जानि।
पुनि वह बेलि बढौ कै सूकौ, वाहि कहा हित हानि।।
प्रथम बेनु धुनि करत हरत मन, राग रागिनी ठानि।
पुनि वह व्याध विसास बिवस करि, हनत विषम सर तानि।।
पय प्यावत पूतना सँहारी, छले जु बलि से दानि।
सूपनखा नासिका निपाती, ‘सूर’ सदा यह बानि।।3839।।