हरि जू आए सो भली कीन्ही।
मो देखत कहि उठी राधिका, अंक तिमिर कौ दीन्ही।।
तन अति कप विरह अति व्याकुल, उर धुकधुकि अति कीन्ही।
चलत चरन गहि रही गई गिरि, स्वेद सलिल भइ भीनी।।
छुटी न भुज, टूटी बलयाबलि, फटी कंचुकी झीनी।
मनौ प्रेम की परनि परेवा, याही तै पढि लीनी।।
अवलोकत इहिं भाँति रमापति, मानौ अहि मनि छीनी।
‘सूरदास’ प्रभु कहाँ कहाँ लौ, भई अयान मतिहीनी।।4104।।