हरि क्रीड़ा कापै कहि जाइ -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

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राग घनाश्री
यमलार्जुनोद्धार की दूसरी लीला





हरि क्रीड़ा कापै कहि जाइ।
देखत पेखत लोग नगर के सब बातनि अरुझाइ।।
कबहूँ हँसत स्याम जू कबहूँ समुझि बात समुझाइ।
कबहूँ हरि रोवत अति व्याकुल नैन नीर ढरकाइ।।
प्रगटी रीति स्याम की सोभा क्रीड़ा बरनि न जाइ।
जाकौ नाम अनत संत कहै और सखा नहिं माइ।
जाकी सुरति मुरति आँखिनि मैं नहीं कबहुँ मुख आनै।
तासौ कौन भवन रब मानत अति अपनौ जिय जानै।।
वह अति अगम अपार महा मुनि बरनत थाह न पावै।
तासौ राज भाग अब कैसौ उपमा बरनि न आवै।।
नंदनँदन मुख बदन कमल दल सुख बरनत क्यौ पावै।
'सूरदास' प्रभु अगम अगोचर बात चलत मो आवै।। 25 ।।

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