हरि-मुख-बिधु मेरी अँखियाँ चकोरी।
राखे रहति आटपट जतननि, तऊ न मानतिं कितिक निहोरी।।
बरबस ही इन गही मूढ़ता, प्रीति जाइ चंचल सौ जोरी।
बिबस भई चाहति उड़ि लागन, अटकतिं नैकु अँजन की डोरी।।
बरबसही इन गही चपलता, करत फिरत हमहूँ सौ चोरी।
'सूरदास' प्रभु मोहन नागर, बरषि सुधा-रस-सिंधु झकोरी।।2306।।