लोचन लालच तै न टरे।
हरि सारँग सौ सारँग गीधे, दधि-सुत-काज जरे।।
ज्यौ मधुकर बस परे केतकी, नहि ह्वाँ तै निकरे।
ज्यौ लोभी लोभहि नहि छाँड़त, ये अति उमँग भरे।।
सनमुख रहत, सहत दुख दारुन, मृग ज्यौ नहीं डरे।
वह धोखै, यह जानत है सब, हित चित सदा करे।।
ज्यौ पतंग फिरि परत प्रेम बस, जीवत मुरछि मरे।।
जैसै मीन अहार लोभ तै, लीलत परै गरे।।
ऐसैहि ये लुब्धे हरि छवि पर, जीवत रहत भिरे।
'सूर' सुभट ज्यौ रन नहि छाँड़त, जब लौ धरनि गिरे।।2307।।