हरवर चक्र धरे हरि धावत।
गरुड़ समेत सकल सेनापति, पाछैं लागे आवत।
चलि नहिं सकत गंरुड़ मन डरपत, बुधि बल बलहिं बढ़ावत।
मनहूँ तैं अति बेग अधिक करि , हरिजू चरन चलावत।
के जानै प्रभु कहाँ चले है, काहूँ कछु न जनावत।
अति व्याकुल गति देखि देप-गन, सोचि समल दूख पावत।
गज-हित धाक्त, जन मुकरावन, बेद विमल जस गावत।
सूर समुझि, समुझाइ अनाथनि, इहिंविधि नाथ छुड़ावत ।।4।।