माघौ जू, गज ग्राह ते छुड़ायौ।
निगमनि हूँ मन-बचन अगोचर , प्रगट सो रूप दिखायौ।
सिव-विरंचि देखत सब ठाडे़, बहुत दीन दुख पायौ ।
बिन बदलें उपकार करै को, काहूँ करत न आयौ।
चिंतत ही चित मैं चिंतामनि, चक्र लिए कर धायौ।
अति करुना-कातर करुनामय, गरुड़हु कौं छुटकायौ।
सुनियत सुजम जो जिन जन कारन कबहुँ गहरु लगायौ ।
ना जानौं सूरहिं इहिं औसर, कौन दोष बिसरायौ ।।3।।