कोऊ चतुर नारि जो होइ। करै नहीं पतिआरौ सोइ।।
कोउ कहै हम तुम कत पतियाई। उनकै हित कुल लाज गवाई।।
हरि कछु ऐसौ टोना जानत। सबकौ मन अपनै बस आनत।।
कोउ कहै हरि हम सब बिसराई। कहा कहै कछु कह्यौ न जाई।।
हरिकौ सुमिरि नयन जल टारै। नैकु नहीं मन धीरज धारै।।
यह सुनि हलधर धीरज धारि। कह्यौ आइहै हरि निरधारि।।
जब बल यह संदेस सुनायौ। तब कछु इक मन धीरज आयौ।।
बल तहँ बहुरि रहे द्वै मास। ब्रज बासिनि सौ करत बिलास।।
सब सौ मिलि पुनि निजपुर आए। 'सूरदास' हरि के गुन गाए।। 4200।।