स्याम धरयौ गिरि गोबरधन कर। राखि लिये ब्रज के नारी-नर।।
गोकुल ब्रज राख्यौ सब घर-घर। आनँद करत सबै ताही-तर।।
बरसत मुसलघार मघवा बर। बूंद न आवत नैंकहुं भू पर।।
धार अखंडित बरषत झर-झर। कहत मेघ धोवहु ब्रज गिरिवर।।
सलिल प्रलय कौ टूटत तर-तर। बाजत सबद नीर कौ धर-धर।।
वै जानत जल जात है दर-दर। बरषत कहत गयौ गिरि कौ जर।।
सूरदास प्रभु कान्ह गर्ब-हर। बीचहिं जरत जात जल अंबर।।
बोलि लिये सब ग्वाल कन्हाई। टेकहुँ गिरि गोबर्धनराई।।
आजु सबै मिलि होहु सहाई। हँसत देखि बलराम कन्हाई।।
सकुट लिये कर टेकत जाई। कहत परस्पर लेहु उठाई।।
बरषत इंद्र महा झर लाई। अति जल देखि सखा डरपाई।।
नंद-नँदन बिनु को गिरि धारै। ऐसे बल बिनु कौन सम्हारै।।
नष तैं गिरैं कौन गिरि राखै। बार-बार, रहि-रहि, यह भाखै।।
सूर स्याम गिरिवर कर लीन्हौ। बरषत मेघ चकित मन कीन्हौ। ।।939।।