सूरदास त्यौं ही कहि गायौ3 -सूरदास

सूरसागर

षष्ठ स्कन्ध

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राग बिलावल
श्रीगुरु-महिमा


बहुरि कही अपनी सब कथा। हरि जो कह्यौ , कह्यौ पुनि तथा।
तिन कह्यौ देह-मोह अति भारी। सुरपति , तब यह देखि विचारो।
यह तन कयौहूँ दियौ न जावै। और देत कछु बन नहिं आवै।
पै यह अंत न रहिहै भाई। परहित देुहु तौ होइ भलाई।
तन दैवै तैं नाहिं न भजौं। जोग धारना करि इहि तजौ।
गउ चटाइ, मम त्वचा उपारौ। हाड़नि कौ तुम बज्र सँवारो।
सुरपति रिषि की आज्ञा पाइ। लिए हाड़, कियौ बज्र बनाइ।
गो-मुख असुचि तबहि तैं भयौ। रिषि सुकदेव नुपति सौं कह्मो।
इंद्र आइ तब असुर प्रचारयौ। कियौ युद्ध पै असुर न हारयौ।
इंद्र-हाथ तैं बज्र छिनाइ। मारयौ ऐरावत कौं धाइ।
ऐरावत घायल ह्वै गयौ। तब वृत्रासुर को सुख भयौ।
ऐरावत अमृत कैं प्याए। भयौ सचेत, इंद्र तब धाए।
बृत्रासुर कौ बज्र प्रहारयौ। तिन त्रिसूल सुरपति कौं मारयौ।
लगत त्रिसूल इंद्र मुरझायौ। कर तैं अपनौ बज्र गिरायौ।
कह्मौ असुर, सुरपति संभारि। लैं करि बज्र माहि परहारि।
जौ मरिहौं तो सुरपुर जैहौं। जीते जगत माहि जस लैहो।
हार-जीत नहिं जिय कें हाथ। कारन-करता आनहि नाथ।
हमै-तुम्हैं पुतरी कैं भाइ। देखत कौतुक विविध नचाइ।
तब सुरपति लै त्रज्र सँहारयौ। जै-जै सब्द सुरनि उच्चायौ ।
पै इंद्रहिं संतोष न भयौ। ब्राह्मन-हत्या कैं दुख तयौ।
सो हत्या तिहिं लागी धाइ। छिप्यौ सो ममलनाल मै जाइ।
सुरगुरु जाइ तहाँ तैं ल्यायौ। तासौं हरि-हित जज्ञ करायौ।
जज्ञ तै हत्या गई बिलाइ। पुनि नृप भयौ इंद्रपुर आइ।
नृप यह सुनि सुक सौ यौ कही। ज्ञान बुद्धि असुरहि क्यौं भई।
सुक कह्मौ सुनौ परिच्छित राह। देहुँ तोहि बृतांत सुनाइ।
चित्रकेतु पृथ्वीपति राउ। सुत-हित भयौ तासु चित-चाउ।
जद्यपि रानी बरी अनेक। पै तिनते सुत भयौ न एक।
ता गृह रिषि अंगिरा सिघाए। अर्धासन दै तिन बैठाए।
रिषि सौं नृप निज बिथा सुनाई। होइ कहूँ, सो करौ उपाई।
रिषि कह्मो, पुत्र न तेरै होइ। होइ कहूँ, तौ करौं सोइ ।
नृप कह्मौ, एक बार सुत होइ। पाछैं होनी होइ सो होइ।
रिषि ता नृप सौ यज्ञ करायौ। दै प्रसाद यह वचन सुनायौ ।
जारानी कौ तू यह दैहे। ता रानी सेती सुत ह्वै है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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