सूरदास त्यौं ही कहि गायौ2 -सूरदास

सूरसागर

षष्ठ स्कन्ध

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राग बिलावल
श्रीगुरु-महिमा


ब्रह्मा कह्मौ, बुरौ तुम कियौ। निज गुरु कौं आदर नहिं दियौ।
अब तुम बिस्वरूप गुरु करौ। ता प्रसाद या दुख कौं तरौ।
सुरपति विस्वरूप पै जाइ। दोउ कर जोरि कह्यौ सिर नाइ।
कृपा करौ, मम प्रोहित होहु। कियौ वृहस्पति मो पर कोहू।
कह्यौ, पुरोहित होत न भलौ। विनसि जात तेज-तप सकलौ।
पै तुम बिनती बहु विधि करी। तातैं मैं मन मैं यह घरी।
यह कहि इंद्रहिं जज्ञ करायौ। गयौ राज अपनौ तिन पायौ।
असुरनि विस्वरूप सौं कह्यौ। भली भई, तू सुरगुरु भयौ।
तुव ननसाल माहिं हम आहिं। आहुति हमैं देत क्यौं नाहिं।
तिहिं निमित्त तिन आहुति दई। सुरपति बात जानि यह लई।
करि कै क्रोध तुरत तिहिं मारयौ। हत्या हित यह मंत्र विचारयौ।
चारि अंस हत्या के किए। चारौं अंस बाँटि पुनि दिए।
एक अंस पृथ्वी कौं दयौ। ऊसर तामैं तातै भयौ।
एक अंस बृच्छनि कौं दोन्हौ। गोंद होइ प्रकास तिन कीन्हों।
एक अंस जल कौं पुनि दयौ। ह्वै कै काई जल कौं छयौ।
एक अंस सब नारिनि पायौ। तिनकौं रजस्वला दरसायौ।
त्वष्टा विस्वरूप को बाप। दुखित भयौ सुनि सुत-संताप।
क्रुद्ध होइ इक जटा उपारी। बृत्रासुर उपज्यौ बल भारी।
सो सुरपति कौं मारन धायौ। सुरपति हू ता सन्मुख आयौ।
जेतक सस्र सो किए प्रहार। सो करि लिए असुर आहार।
तब सुरपात मन मैं भय मान। गयौ तहाँ जहँ श्री भगवान।
नमस्कार करि बिनय सुनाई। राखि राखि असरन-सरनाई।
कह्यौ भगवान, उपाय न आन। रिषो दधोचि-हाड़ लै दान।
ताकौ तू निज वज्र बनाउ। मरिहै असुर ताहि कै घाउ।
तब सुरपति रिषि कैं ढिग जाइ। करी बिनय बहु सीस नवाइ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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