सूच्छम चरन चलावत बल करि।
अटपटात, कर देति सुंदरी उठत तबै सुजतन तन-मन-धरि।
मृदु पद धरत धरनि ठहरात न, इत-उत भुज जुग लै-लै भरि-भरि।
पुलकित सुमुखी भई स्याम-रस ज्यौं जल मैं काँची गागरि गरि।
सूरदास सिसुता-सुख जलनिधि, कहँ लौं कहौं नाहिं कोउ समसरि।
बिबुधनि मन तर मान रमत ब्रज, निरखत जसुमति सुख छिन-पल-धरि।।120।।