सुरपति क्रोध कियौ अति भारे -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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सुरपति क्रोध कियौ अति भारे। फरकत अधर नैन रतनारे।।
भृत्य बुलाए दै-दै गारी। मेघनि ल्यावौ तुरत हँकारी।।
एक कहत धाए सौ चारी। अति डरपे तन की सुधि हारी।।
मेधबर्त्त, जलबर्त्त बुलावहु। सैन साजि तुरतहिं लै आवहु।।
कापर क्रोध कियौ अमरापति। महाप्रलय जिय जानि डरे अति।।
मेघनि सौ यह बात सुनाई। तुरत चलौ बोले सुरराई।।
सेना सहित बुलायौ तुमकौं। रिस करि तुरत पठायौ हमकौं।।
बेगि चलौ कछु बिलँब न लावहु। हमहिं कह्यौ अवही लै आवहु।।
मेघबर्त्त सब सैन्यं बुलाए। महाप्रलय के जे सब आए।।
कछु हरषे कछु मनहिं सकाने। प्रलय आहि कै हमहि रिसाने।।
चूक परी हम तै कछु नाहीं। यह कहि कहि‍ सब आतुर जाहीं।।
मेघबर्त्त-बलवर्त्त, वारिव्रत। अनिलबर्त्त, नलबर्त्त, बज्रब्रत।।
बोलत चले आपनी बानी। प्रभु सनमुख सब पहुँचे आनी।।
गर्जि गर्जि घहरातहिं आए। देव देव कहि माथ नवाए।।
सूरदास डरपत सब जलधर। हम पर क्रोध किधौं काहू पर।।926।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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