सुरपतिहिं बोलि रघुबीर बोले -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू


 
सुरपतिहिं बोलि रघुबीर बोले।
अमृत की वृष्टि रन-खेत ऊपर करो, सुनत तिन अमिय-भंडार खोले।
उठे कपि-मालु ततकाल जै-जै करत, असुर भए मुक्त, रघुवर निहारे।
सूर प्रभु अगम-महिमा न कछु कहि परति, सिद्ध गंधर्व जै जै उचारे॥163॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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