सुनौ कपि, कौसिल्या की बात।
इहिं पुर जनि आवहिं मम बत्सल, बिनु लछिमन लघु भ्रात।
छाँड़यौ राज-काज, माता-हित, तुव चरननि चित लाइ।
ताहि विमुख जीवनधिक रघुपति, कहियो कपि समुझाइ।
लछिमन सहित कुसल बैदेही, आनि राज पुर कीजै।
नातरु सूर सुमित्रा-सुत पर वारि अपुनपौ दाजै॥153॥