धनि जननी जो सुभटहिं जावै।
भीर परैं रिपु कौ दल दलि-मलि कौतुक करि दिखरावै।
कौसिल्या सौं कहति सुमित्रा, जनि स्वामिनि दुख पावै।
लछिमन जनि हौं भई सपूती राम-काज जो आवै।
जीवै तौ सुख बिलसै जग मैं, कीरत लोकनि गावै।
मरै तो मंडल भेदि भानु कौ, सुरपुर जाइ बसावै।
लोह गहैं लालच करि जिय कौ, औरौ सुमट लजावै।
सूरदास प्रभु जीति सत्रु कौं, कुसल-छेम घर जावै॥152॥