सुनि धुनि स्रवन उठी अकुलाइ।
जो देखै नंद-नंद नहीं वै, सखियनि बेष बनाइ।।
कहा कपट करि मोहिं दिखावति, कहाँ स्याम सुखदाइ।
कृष्ण-कृष्ण सरनागत कहि कहि, बहुरि गिरी भहराइ।।
पुनि दौरीं जहँ-तहँ ब्रजवाला, वन-द्रुम सोर लगाइ।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, बिरहिनि लेहु जिवाइ।।1122।।