सुनि देवकी को हितू हमारै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग केदारौ


सुनि देवकी को हितू हमारै।
असुर कंस उपवंस बिनासन, सिर ऊपर बैठे रखवारे।
ऐसौ को समरथ त्रिभुवन मैं, जो यह बालक नैंकु उबारै।
खड़ग धरे आवै, तुव देखत, अपनैं कर छिन माहँ पछारै।
यह सुनतहिं अकुलाइ गिरी धर, नैन नीर भरि-भरि दोउ ढारै।
दुखित देखि बसुदेव-देवकी प्रगट भए धरि कै भुज चारै।
बोलि उठे परतिज्ञा करि प्रभु, मोतैं उबरै तब मोहिं मारै।
अति सुख मैं दुख दै पितु-मातहिं, सूरज-प्रभु नँद-भवन सिधारे॥10॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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