सुनत हंसी सुख होहीं -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


सुनत हँसी सुख होहीं, दान दही कौं लाग्यौ।
निसि दिन मथुरा बेचैं, स्यादम दान अब माँग्यौ।।
प्रात होत उठि कान्ह, टेरि सब सखा बुलाए।
तेइ तेइ लीन्हे साथ, मिले जे प्रकृति बनाए।।
डगरि गए अनजानहीं, गह्यौ जाइ बन-घाट।
पेड़ पेड़ तर कै लगै, ठाटि ठगनि कौं ठाट।।
इहाँ ग्वालि बनि बानि, जुरीं सब सखी सहेली।
सिरनि लिए दधि दूध, सबै जोबन अलबेली।।
हँसति परस्पर आपु मैं, चली जाहिं जिय भोर।
जबहिं आनि घातहिं परीं, (तब) छेंकि लिए चहुं ओर।।
देखि अचानक भीर भई, सब चकित किसोरी।
ज्‍यौं मृग-सावक-जूथ मध्य, बागुर चहुं ओरी।।
संकित ह्वै ठाढ़ी भइ, हाथ-पांव नहिं डोल।
मनहु चित्र की भी लिखी, मुखहिं न आवै बोल।।
तब उठि बोल ग्वाल, डरहु जिनि कान्ह-दुहाई।
ठग तसकर कोउ नाहिं, दानि जदुपति सुखदाई।।
आवत निसि दिनही रहौ, स्याम-राज भय नाहिं।
जो कछु लागै दान कौ, घाटि देहु तिहिं माहिं।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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