काहू कौं अंकम भरि भेटैं। काम बिथा तरुनिनि की भेटैं।।
ब्रह्मा कीट आदि के स्वामी। प्रभु हैं निर्लोभि निहकामी।।
भाव-बस्य संगहीं संग डोलैं। खैलैं हंसै तिनहिं सौ बोलैं।।
ब्रज-जुवती नहिं नैंकु बिसारैं। भवन-काज, चित हरि सौं धारैं।।
गोरस लै निकसैं ब्रज-बाला। तहाँ तिनहिं देखैं गोपाला।।
अँग-अँग सजि सिंगार बर कामिनि। चलैं मनौ जूथनि जुरि दामिनि।।
कटि किंकिनि नूपुर बिछिया धुनि। मनहुँ मदन के गज-घंटा सुनि।।
जातिं माट मटुकी सिर धरि कै। मुख-मुख गान करत गुन हरि कै।।
चंद-बदनि तन अति सुकुमारी। अपनैं मन सब कृष्न-पियारी।।
देखि सबनि रीझे बनवारी। तब मन मैं इक बुद्धि बिचारी।।
अब दधि-दान रचौं इक लीला। जुवतिनि संग करौं रस-क्रीला।।
सूर स्याम संग सखनि बुलायौ। यह लीला कहि सुख उपजायौ।।1460।।