सिंधु मथत काहैं बिधु काढ़ौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग जैतश्री


सिंधु मथत काहै बिधु काढ़ौ।
गिरि अरु नाग असुर सुर मिलि करि, गरजि गरजि किन बाढ़ी।।
टोटौ हतौ रतन तेरह तौ, कियौ चौदहौ पूरौ।
कहा सौंपि दीन्ही अमरनि क्यौ, बिरहिनि पर भयौ सूरौ।।
उपजत बैर जदपि काहू सौं, निकट आइ करि मारै।
यह नभ पर भूपर क्यौ चितकै, उहही तै अरि जारै।।
दोष कहा सुनिकै बड़वानल, अंसु जु विष से भाई।
क्रोधी ईस सीस बैठारयौ, तातै यह मति पाई।।
मथुरा कौ प्रभु मोहन नागर, किए सगुन जग जातै।
ताकी प्रिया ‘सूर’ निसि बासर, सहति विरहदुख गातैं।। 3356।।

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