सब जल तजे प्रेम के नातै।
चातक स्वाति बूँद नहि छाड़त, प्रगट पुकारत तातै।।
समुझत मीन नीर की बातै, तऊ प्रान हठि हारत।
सुनत कुरंग प्रेम नहि त्यागत, जदपि व्याध सर मारत।।
निमिष चकोर नैन नहि लावत, ससि जोवत जुग बीते।
ज्योति पतग देखि बपु जारत, भये न प्रेम घट रीते।।
कहि अलि क्यौ बिसरत वै बातै, संग जु करि ब्रजराज।
कैसै ‘सूर’ स्याम हम छाँडै, एक देह के काज।।3831।।