लैहौं दान इननि कौ तुम सौं।
मत्त गयंद, हंस हम सौहैं, कहा दुरावति हम सौं।।
केहरि, कनक-कलस अमृत के कैसैं दुरैं दुरावति।
बिद्रुम, हेम, बज्र के कनुका नाहिंन हमहिं सुनावति।।
खग कपोत, कोकिला, कीर, खंजन, चंचल मृग जानति।
मनि कंचन के चक्र जरे हैं, एते पर नहि मानति।।
सायक, चाप, तुरय, बनि जति हौ, लिये सबै तुम जाहु।
चंदन, चँवर, सुंगध, जहाँ तहँ, कैसैं होत निबाहु।।
यह बनिजति वृषभानु-सुता तुम, हमसौं बैर बढ़ावति।
सुनहु सूर एते पर कहियत, हम धौं कहा लदावति।।1549।।