रे सेठ, बिन गोविंद सुख नाहीं।
तेरौ दु:ख दूरि करिबे कौं रिधि-सिधि फिरि-फिरि जाँहीं।
सिव, बिरंचि सनकादिक मुनिजन इनकी गति अवगाहीं।
जगत-पिता जगदीस-सरन बिनु, सुख तीनौं पुर नाहीं।
और सकल मैं देखे ढूढे, बादर की सी छाँहीं।
सूरदास भगवंत भजन बिनु, दुख कबहूँ नहीं जाहीं।।।323।।