राधेहिं मिलेहुँ प्रतीति न आवति -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग केदारौ


राधेहिं मिलेहुँ प्रतीति न आवति।
जदपि नाथ-बिधु-बदन बिलोकत, दरसन कौ सुख पावति।
भरि भरि लोचन रूप-परम-निधि, उरमै आनि दुरावति।
भरि भरि लोचन रूप-परम-निधि, उरमै आनि दुरावति।
चितवत चकित रहनि चित अतर, नैन निमेष न लावति।
सपनौ आहि कि सत्य ईस यह, बुद्धि वितर्क वनावति।
कबहुँक करति विचार कौन हौ, को हरि कै हिय भावति।
'सूर' प्रेम की बात अटपटी, मन तंरग उपजावति।।2123।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः