राधेहिं मिलेहुँ प्रतीति न आवति।
जदपि नाथ-बिधु-बदन बिलोकत, दरसन कौ सुख पावति।
भरि भरि लोचन रूप-परम-निधि, उरमै आनि दुरावति।
भरि भरि लोचन रूप-परम-निधि, उरमै आनि दुरावति।
चितवत चकित रहनि चित अतर, नैन निमेष न लावति।
सपनौ आहि कि सत्य ईस यह, बुद्धि वितर्क वनावति।
कबहुँक करति विचार कौन हौ, को हरि कै हिय भावति।
'सूर' प्रेम की बात अटपटी, मन तंरग उपजावति।।2123।।