राधिका हरि अतिथि तुम्हारै।
रतिपति असनकाल गृह आए, उठि आदर करि कहै हमारे।।
आसन आधी सेज सरकि दै, सुख पैहै पद हरषि पखारै।
अर्घ्यादिक आनंद अमृतमय ललित-लोल-लोचन जल धारै।।
धूप सुवास ततच्छन बस करि, मन मोहन हँसि दीप उजारैं।
वचन रचन, भ्रुव भंग और अँग, प्रेम-मधुर-रस परुसि निन्यारै।।
उचित केलि कटु तिक्त त्यागि, पट अमल उलटि, अंकम हठि हारै।
नखछत छार, कसाय कुचग्रह चुंबन सर्पि समर्पि सँवारैं।।
अधर-सुधा-उपदस-सीक सुचि, बिधु-पूरन-मुखवास सँचारै।
'सूर' सुकृत संतोषि स्याम कौ, बहुत पुन्य यह व्रत प्रतिपारै।।2822।।