रघुपति चित्त विचार-करयौ2 -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

Prev.png
राग धनाश्री
राम-सागर-संवाद


 
सब दल उतरि होइ पारंगत जयौं न कोउ इक छीजै।
यह सुनि दूत गयौ लंका मैं, सुनत नगर अकुलानौ।
रामचंद्र- परताप दसौं दिसि, जल पर तरत पखानौ।
दस सिर बोलि निकट बैठायौ, कहि धावन सति भाउ।
उद्यम कहा होत लंका कौं कौनैं कियौ उपाउ?
जामवंत-अंगद बंधू मिलि, कैसें इहिं पुर ऐहैं।
मो देखत जानकी नयन भरि, कैसें देखन पैहैं।
हौं सति भाउ कहौं लंकापति, जौ जिय आयसु पाऊँ।
सकल भेव व्यवहार कटक कौ, परगट भाषि सुनाऊँ।
बार-बार यौं कहत सकात न, तोहिं हति लैहैं प्रान।
मेरै जान कनकपुरि फिरिहै रामचंद्र की आन।
कुंभकरन हूँ कह्यौ सभा मैं, सुनौ आदि उतपात।
एक दिवस हम ब्रह्म-लोक मैं चलत सुनी यह बात।
काम-अंध ह्वै सब कुटुब-धन जैहैं एकै बार।
सो अब सत्य होत इहिं औसर, कौ है मेटनहार।
और मंत्र अब उर नहिं आनौं, आजु विकट रन माँड़ौं।
गहौं बान रघुपति कैं सम्मुख ह्वै करि यह तन छाँड़ौं।
यह जस जीति परम पद पावौं, उर संसै सब खोइ।
सूर सकुचि जौ सरन सँभारौं, छत्री-धर्म न होइ॥121॥

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः