रघुपति चित्त विचार-करयौ।
नातौ मानि सगर सागर सौं, कुस-साथरी परयौ।
तीनि जाम अरु बासर बीते, सिंधु गुमान भरयौ।
कीन्हौा कोप कुँवर कमलापति, तब कर धनुष धरयौ।
ब्रह्म-वेष आयौ अति व्याकुल, देखत बान डरयौ।
द्रुम-पषान प्रभु बेगि मँगायौ, रचना सेतु करयौ।
नल अरु नील बिस्वकर्मा-सुत, छुवत पषान तरयौ।
सूरदास स्वामी प्रताप तैं, सब संताप हरयौ॥122॥