यह नैननि की टेव परी।
जैसै लुबधति कमलकोस मै, भरमर की भ्रमरी।।
ज्यौ चातक स्वातिहिं रट लावै, तैसिय धरनि धरी।
निमिष नही मिलवत पल एकौ, आपु दसा बिसरी।।
जैसै नारि भजै पर पुरषहिं, ताकै रंग ढरी।
लोक वेद आरज पथ की सुधि, मारगहू न न डरी।।
ज्यौ कचुरी त्यागि उहिं मारग, अहिघरनी न फिरी।
'सूरदास' तैसेहि ये लोचन, का धौ परनि परी।।2315।।